भगतसिंह (1928)
शहीद भगतसिंह और भगवतीचरण वोहरा ने नौजवानों और विद्यार्थियों को संगठित करने के प्रयास 1926 से ही शुरू कर दिए थे। अमृतसर में 11, 12, 13 अप्रैल, 1928 को हुए नौजवान भारत सभा के सम्मेलन के लिए सभा का घोषणापत्र तैयार किया गया, जिसे नीचे दिया जा रहा है। भगतसिंह इस सभा के महासचिव और भगवतीचरण वोहरा प्रचार-सचिव बने –सं.।
नौजवान साथियो,
हमारा देश एक अव्यवस्था की स्थिति से गुजर रहा है। चारों तरफ एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और हताशा का साम्राज्य है। देश के बड़े नेताओं ने अपने आदर्श के प्रति आस्था खो दी है और उसमें से अधिकांश को जनता का विश्वास प्राप्त नहीं है। भारत की आजादी के पैरोकारों के पास कोई कार्यक्रम नहीं है, और उनमें उत्साह का अभाव है। चारों तरफ अराजकता है। लेकिन किसी राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया में अराजकता एक अनिवार्य तथा आवश्यक दौर है। ऐसी ही नाजुक घड़ियों में कार्यकर्ताओं की ईमानदारी की परख होती है, उनके चरित्र का निर्माण होता है, वास्तविक कार्यक्रम बनता है, और तब नये उत्साह, नयी आशाओं, नये विश्वास और नये जोशो-खरोश के साथ काम आरम्भ होता है। इसलिए इसमें मन ओछा करने की कोई बात नहीं है।
हम अपने-आपको एक नये युग के द्वार पर खड़ा पाकर बड़े भाग्यशाली हैं। अंग्रेज नौकरशाही के बड़े पैमाने पर गुणगान करने वाले गीत अब सुनायी नहीं देते। अंग्रेज का हमसे एक ऐतिहासिक प्रश्न है कि ‘'तुम तलवार से प्रशासित होगे या कलम से?'’ अब ऐसा नहीं रहा कि उसका उत्तर न दिया जाता हो। लार्ड बर्केनहेड के शब्दों में, ‘'हमने भारत को तलवार के सहारे जीता और तलवार के बल से ही हम उसे अपने हाथ में रखेंगे।'’ इस खरेपन ने अब सबकुछ साफ कर दिया है। जलियाँवाला और मानावाला के अत्याचारों को याद करने के बाद उद्धृत करना कि ‘'अच्छी सरकार स्वशासन का स्थान नहीं ले सकती'’ बेहूदगी ही कही जायेगी। यह बात तो स्वतः स्पष्ट है।
भारत में अंग्रेजी हुकूमत की दी हुई सुख-सम्पदाओं के बारे में भी दो शब्द सुन लीजिए। भारत के उद्योग-धंधों के पतन और विनाश के बारे में बतौर गवाही क्या रमेशचन्द्र दत्त, विलियम डिगबी और दादा भाई नौरोजी के सारे ग्रन्थों को उद्धृत करने की आवश्यकता होगी? क्या इस बात को साबित करने के लिए कोई प्रमाण जुटाना पड़ेगा कि अपनी उपजाऊ भूमि तथा खानों के बावजूद आज भारत सबसे गरीब देशों में से एक है, कि भारत जो अपनी महान सभ्यता पर गर्व कर सकता था आज बहुत पिछड़ा हुआ देश है, जहाँ साक्षरता का अनुपात केवल पाँच प्रतिशत है? क्या लोग यह नहीं जानते कि भारत में सबसे अधिक लोग मरते हैं और यहाँ बच्चों की मौत का अनुपात दुनिया में सबसे ऊँचा है? प्लेग, हैजा, इन्फ्लुएंजा तथा इसी प्रकार की अन्य महामारियाँ आए दिन की व्याधियाँ बनती जा रही हैं। क्या बार-बार यह सुनना कि हम स्वशासन के योग्य नहीं है, एक अपमानजनक बात नहीं है? क्या यह तौहीन की बात नहीं है कि गुरु गोविन्दसिंह, शिवाजी और हीरासिंह जैसे शूरवीरों के बाद भी हमसे कहा जाये कि हममें अपनी रक्षा करने की क्षमता नहीं है? खेद है कि हमने अपने वाणिज्य और व्यवसाय को उसकी शैशवास्था में ही कुचला जाते नहीं देखा। जब बाबा गुरुदत्त सिंह ने 1914 में गुरु नानक स्टीमशिप चालू करने का प्रयास किया था तो दूर देश कनाडा में और भारत आते समय उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया और अन्त में बज-बज के बन्दगाह पर उन साहसी मुसाफिरों का गोलियों से खूनी स्वागत किया गया। और भी क्या कुछ नहीं किया गया? क्या हमने यह सब नहीं देखा? उस भारत में जहाँ द्रौपदी के सम्मान की रक्षा में महाभारत जैसा महायुद्ध लड़ा गया था, वहाँ 1919 में दर्जनों द्रौपदियों को बेइज्जत किया गया, उनके नंगे चेहरों पर थूका गया। क्या हमने यह सब नहीं देखा? फिर भी हम मौजूदा व्यवस्था से सन्तुष्ट हैं। क्या यह जीने योग्य ज़िन्दगी है?
क्या हमें यह महसूस कराने के लिए कि हम गुलाम हैं और हमें आजाद होना चाहिए, किसी दैवी ज्ञान या आकाशवाणी की आवश्यकता है? क्या हम अवसर की प्रतीक्षा करेंगे या किसी अज्ञात की प्रतीक्षा करेंगे जो हमें महसूस कराये कि हम दलित लोग हैं? क्या हम इन्तजार में बैठे रहेंगे कि कोई दैवी सहायता आ जाये या फिर कोई जादू हो जाये कि हम आजाद हो जायें? क्या हम आजादी के बुनियादी सिद्धान्तों से अनभिज्ञ हैं? ‘'जिन्हें आजाद होना है उन्हें स्वयं चोट करनी पड़ेगी।'’ नौजवानो जागो, उठो, हम काफी देर सो चुके!
हमने केवल नौजवानों से ही अपील की है क्योंकि नौजवान बहादुर होते हैं, उदार एवं भावुक होते हैं, क्योंकि नौजवान भीषण अमानवीय यंत्राणाओं को मुस्कुराते हुए बर्दाश्त कर लेते हैं और बगैर किसी प्रकार की हिचकिचाहट के मौत का सामना करते हैं, क्योंकि मानव-प्रगति का सम्पूर्ण इतिहास नौजवान आदमियों तथा औरतों के खून से लिखा है; क्योंकि सुधार हमेशा नौजवानों की शक्ति, साहस, आत्मबलिदान और भावात्मक विश्वास के बल पर ही प्राप्त हुए हैं —
ऐसे नौजवान जो भय से परिचित नहीं हैं और जो सोचने के बजाय दिल से कहीं अधिक महसूस करते हैं।
क्या यह जापान के नौजवान नहीं थे जिन्होंने पोर्ट आर्थर तक पहुँचने के लिए सूखा रास्ता बनाने के उद्देश्य से अपने आपको सैकड़ों की तादाद में खाइयों में झोंक दिया था? और जापान आज विश्व के सबसे आगे बढ़े हुए देशों में से एक है। क्या यह पोलैण्ड के नौजवान नहीं थे जिन्होंने पिछली पूरी शताब्दी भर बार-बार संघर्ष किये, पराजित हुए और फिर बहादुरी के साथ लड़े? और आज एक आजाद पोलैण्ड हमारे सामने है। इटली को आस्ट्रिया के जुऐ से किसने आजाद किया था? तरुण इटली ने!
युवा तुर्कों ने जो कमाल दिखलाया, क्या आप उसे जानते हैं? चीन के नौजवान जो कर रहे हैं, उसे क्या आप रोज समाचार-पत्रों में नहीं पढ़ते हैं? क्या यह रूस के नौजवान नहीं थे जिन्होंने रूसियों के उद्धार के लिए अपनी जानें कुर्बान कर दी थीं? पिछली शताब्दी भर लगातार केवल समाजवादी पर्चे बाँटने के अपराध में सैकड़ों-हजारों की संख्या में उन्हें साइबेरिया में जलावतन किया गया था, दोस्तोयेव्स्की जैसे लोगों को सिर्फ इसलिए जेलों में बन्द किया गया कि वे समाजवादी डिबेटिंग (बहस-मुबाहसा चलाने वाली) सोसाइटी के सदस्य थे। बार-बार उन्होंने दमन के तूफान का सामना किया, लेकिन उन्होंने साहस नहीं खोया। वे संघर्षरत नौजवान थे। और सब जगह नौजवान ही निडर होकर बगैर किसी हिचकिचाहट के और बगैर(लम्बी-चौड़ी) उम्मीदें बाँधे लड़ सकते हैं। और आज हम महान रूस में विश्व के मुक्तिदाता के दर्शन कर सकते हैं।
जबकि हम भारतवासी, हम क्या कर रहे हैं? पीपल की एक डाल टूटते ही हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएँ चोटिल हो उठती हैं! बुतों को तोड़ने वाले मुसलमानों के ताजिये नामक कागज के बुत का कोना फटते ही अल्लाह का प्रकोप जाग उठता है और फिर वह ‘नापाक’ हिन्दुओं के खून से कम किसी वस्तु से सन्तुष्ट नहीं होता! मनुष्य को पशुओं से अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए, लेकिन यहाँ भारत में लोग पवित्र पशु के नाम पर एक-दूसरे का सिर फोड़ते हैं।
हमारे बीच और भी बहुत से लोग हैं जो अपने आलसीपन को अन्तरराष्ट्रीयतावाद की निरर्थक बकवास के पीछे छिपाते हैं। जब उनसे अपने देश की सेवा करने को कहा जाता है तो वे कहते हैं, ‘'श्रीमानजी, हम लोग जगत-बन्धु हैं और सार्वभौमिक भाईचारे में विश्वास करते हैं। हमें अंग्रेजों से नहीं झगड़ना चाहिए। वे हमारे भाई हैं।'’ क्या खूब विचार हैं, क्या खूबसूरत शब्दावली है! लेकिन वे इसके उलझाव को नहीं पकड़ पाते। सार्वभौमिक भाईचारे के सिद्धान्त की माँग है कि मनुष्य द्वारा मनुष्य का और राष्ट्र द्वारा राष्ट्र का शोषण असम्भव बना दिया जाये, सबको बगैर किसी भेद-भाव के समान अवसर प्रदान किये जायें। भारत में ब्रिटिश शासन इन सब बातों का ठीक उल्टा है और हम उससे किसी प्रकार का सरोकार नहीं रखेंगे।
अब दो शब्द समाज-सेवा के बारे में। बहुत से नेक मनुष्य सोचते हैं कि समाज-सेवा (उन संकुचित अर्थों में जिनमें हमारे देश में इस शब्द का प्रयोग किया जाता है और समझा जाता है) हमारी सभी बीमारियों का इलाज है और देशसेवा का सबसे अच्छा तरीका है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बहुत से ईमानदार नौजवान सारी ज़िन्दगी गरीबों में अनाज बाँटकर या बीमारों की सेवा करके ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। ये अच्छे और आत्मत्यागी लोग हैं लेकिन वे वह समझ पाने में असमर्थ हैं कि भारत में भूख और बीमारी की समस्या को खैरात के माध्यम से हल नहीं किया जा सकता।
धार्मिक अन्धविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं। वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं और हमें उनसे हर हालत में छुटकारा पा लेना चाहिए। ‘'जो चीज आजाद विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती उसे समाप्त हो जाना चाहिए।'’ इसी प्रकार की और भी बहुत सी कमजोरियाँ हैं जिन पर हमें विजय पानी है। हिन्दुओं का दकियानूसीपन और कट्टरपन, मुसलमानों की धर्मान्धता तथा दूसरे देशों के प्रति लगाव और आम तौर पर सभी सम्प्रदायों के लोगों का संकुचित दृष्टिकोण आदि बातों का विदेशी शत्राु हमेशा लाभ उठाता है। इस काम के लिए सभी समुदायों के क्रान्तिकारी उत्साह वाले नौजवानों की आवश्यकता है।
हमने कुछ भी हासिल नहीं किया और हम किसी भी उपलब्धि के लिए कुछ भी त्याग करने को तैयार नहीं हैं। सम्भावित उपलब्धि में किस सम्प्रदाय का क्या हिस्सा होगा, यह तय करने में हमारे नेता आपस में झगड़ रहे हैं। महज अपनी बुजदिली को और आत्मत्याग की भावना के अभाव को छिपाने के लिए वे असली समस्या पर पर्दा डालकर नकली समस्याएँ खड़ी कर रहे हैं। यह आरामतलब राजनीतिज्ञ हड्डियों के उन मुट्ठीभर टुकड़ों पर आँखें गड़ाये बैठे हैं जिन्हें, जैसा उनका विश्वास है, सशक्त शासकगण उनके सामने फेंक सकते हैं। यह बहुत ही अपमानजनक बात है। जो लोग आजादी की लड़ाई में बढ़कर आते हैं वे बैठकर यह तय नहीं कर सकते कि इतने त्याग के बाद उनकी कामयाबी होगी और उसमें उन्हें इतना हिस्सा सुनिश्चित रहना चाहिए। इस प्रकार के लोग कभी भी किसी प्रकार का त्याग नहीं करते। हमें ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो बगैर उम्मीदों के, निर्भय होकर और बगैर किसी प्रकार की हिचकिचाहट के लड़ने को तैयार हों और बगैर सम्मान के, बगैर आँसू बहानेवालों के और बगैर प्रशस्तिगान के मृत्यु का आलिंगन करने को तैयार हों। इस प्रकार के उत्साह के अभाव में हम दो मोचोवाले उस महान युद्ध को नहीं लड़ सकेंगे, जिसे हमें लड़ना है यह युद्ध दो मोर्चों वाला है, क्योंकि हमें एक तरफ अन्दरूनी शत्रु से लड़ना है और दूसरी तरफ बाहरी दुश्मन से। हमारी असली लड़ाई स्वयं अपनी अयोग्यताओं के खिलाफ है। हमारा शत्रु और कुछ हमारे अपने लोग निजी स्वार्थ के लिए उनका फायदा उठाते हैं।
पंजाब के नौजवानो, दूसरे प्रान्तों के युवक अपने क्षेत्रों में जी-तोड़ परिश्रम कर रहे हैं। बंगाल के नौजवानों ने 3 फरवरी को जिस जागृति तथा संगठन-क्षमता का परिचय दिया उससे हमें सबक लेना चाहिए। अपनी तमाम कुर्बानियों के बावजूद हमारे पंजाब को राजनीतिक तौर पर पिछड़ा हुआ प्रान्त कहा जाता है। क्यों? क्योंकि लड़ाकू कौम होने के बावजूद हम संगठित एवं अनुशासित नहीं हैं। हमें तक्षशिला विश्वविद्यालय पर गर्व है, लेकिन आज हमारे पास संस्कृति का अभाव है और संस्कृति के लिए उच्चकोटि का साहित्य चाहिए, जिसकी संरचना सुविकसित भाषा के अभाव में नहीं हो सकती। दुख की बात है कि आज हमारे पास उनमें से कुछ भी नहीं है।
देश के सामने उपस्थित उपरोक्त प्रश्नों का समाधान तलाश करने के साथ-साथ हमें अपनी जनता को आने वाले महान संघर्ष के लिए तैयार करना पड़ेगा। हमारी राजनीतिक लड़ाई 1857 के स्वतंत्राता संग्राम के ठीक बाद से ही आरम्भ हो गयी थी। वह कई दौरों से होकर गुजर चुकी है। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से अंग्रेज नौकरशाही ने भारत के प्रति एक नयी नीति अपनायी है। वे हमारे देश के पूँजीपति तथा निम्नपूँजीपति वर्ग को सहूलियतें देकर उन्हें अपनी तरफ मिला रहे हैं। दोनों का हित एक हो रहा है। भारत में ब्रिटिश पूँजी के अधिकाधिक प्रवेश का अनिवार्यतः यही परिणाम होगा। निकट भविष्य में बहुत शीघ्र हम उस वर्ग को तथा उसके नेताओं को विदेशी शासकों के साथ जाते देखेंगे। किसी गोलमेज कान्फ्रेन्स या इसी प्रकार की और किसी संस्था द्वारा दोनों के बीच समझौता हो जायेगा। तब उनमें शेर और लोमड़ी के बच्चे का रिश्ता नहीं रह जायेगा। समस्त भारतीय जनता के आनेवाले महान संघर्ष के भय से आजादी के इन तथाकथित पैरोकारों की कतारों की दूरी बगैर किसी समझौते के भी कम हो जायेगी।
देश को तैयार करने के भावी कार्यक्रम का शुभारम्भ इस आदर्श वाक्य से होगा-''क्रान्ति जनता द्वारा, जनता के हित में।'’ दूसरे शब्दों में, 98 प्रतिशत के लिए स्वराज्य। स्वराज्य, जनता द्वारा प्राप्त ही नहीं, बल्कि जनता के लिए भी। यह एक बहुत कठिन काम है। यद्यपि हमारे नेताओं ने बहुत से सुझाव दिये हैं लेकिन जनता को जगाने के लिए कोई योजना पेश करके उसपर अमल करने का किसी ने भी साहस नहीं किया। विस्तार में गये बगैर हम यह दावे से कह सकते हैं कि अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए रूसी नवयुवकों की भाँति हमारे हजारों मेधावी नौजवानों को अपना बहुमूल्य जीवन गाँवों में बिताना पड़ेगा और लोगों को समझाना पड़ेगा कि भारतीय क्रान्ति वास्तव में क्या होगी। उन्हें समझाना पड़ेगा कि आनेवाली क्रान्ति का मतलब केवल मालिकों की तब्दीली नहीं होगा। उसका अर्थ होगा नयी व्यवस्था का जन्म — एक नयी राजसत्ता। यह एक दिन या एक वर्ष का काम नहीं है। कई दशकों का अद्वितीय आत्मबलिदान ही जनता को उस महान कार्य के लिए तत्पर कर सकेगा और इस कार्य को केवल क्रान्तिकारी युवक ही पूरा कर सकेंगे। क्रान्तिकारी से अर्थ सिर्फ एक बम और पिस्तौलवाले आदमी से अभिप्राय नहीं है।
युवकों के सामने जो काम है, वह काफी कठिन है और उनके साधन बहुत थोड़े हैं। उनके मार्ग में बहुत सी बाधाएँ भी आ सकती हैं। लेकिन थोड़े किन्तु निष्ठावान व्यक्तियों की लगन उन पर विजय पा सकती है। युवकों को आगे जाना चाहिए। उनके सामने जो कठिन एवं बाधाओं से भरा हुआ मार्ग है, और उन्हें जो महान कार्य सम्पन्न करना है, उसे समझना होगा। उन्हें अपने दिल में यह बात रख लेनी चाहिए कि ‘'सफलता मात्रा एक संयोग है, जबकि बलिदान एक नियम है।'’ उनके जीवन अनवरत असफलताओं के जीवन हो सकते हैं — गुरु गोविन्दसिंह को आजीवन जिन नारकीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था, हो सकता है उससे भी अधिक नारकीय परिस्थितियों का सामना करना पड़े। फिर भी उन्हें यह कहकर कि अरे, यह सब तो भ्रम था, पश्चाताप नहीं करना होगा।
नौजवान दोस्तो, इतनी बड़ी लड़ाई में अपने आपको अकेला पाकर हताश मत होना। अपनी शक्ति को पहचानो। अपने ऊपर भरोसा करो। सफलता आपकी है। धनहीन, निस्सहाय एवं साधनहीन अवस्था में भाग्य आजमाने के लिए अपने पुत्र को घर से बाहर भेजते समय जेम्स गैरीबाल्डी की महान जननी ने उससे जो शब्द कहे थे (उन्हें) याद रखो। उसने कहा, ‘'दस में से नौ बार एक नौजवान के साथ जो सबसे अच्छी घटना हो सकती है वह यह है कि उसे जहाज की छत पर से समुद्र में फेंक दिया जाये ताकि वह तैरकर या डूबकर स्वयं अपना रास्ता तय करे।'’ प्रणाम है उस माँ को, जिसने ये शब्द कहे और प्रणाम है उन लोगों को जो इन शब्दों पर अमल करेंगे।
इतालवी पुनरुत्थान के प्रसिद्ध विद्वान मैजिनी ने एक बार कहा था, ‘'सभी महान राष्ट्रीय आन्दोलनों का शुभारम्भ जनता के अविख्यात या अनजाने, गैरप्रभावशाली व्यक्तियों से होता है, जिनके पास समय और बाधाओं की परवाह न करने वाला विश्वास तथा इच्छा-शक्ति के अलावा और कुछ नहीं होता।'’ जीवन की नौका को लंगर उठाने दो। उसे सागर की लहरों पर तैरने दो और फिर —
‘लंगर ठहरे हुए छिछले पानी में पड़ता है।
विस्तृत और आश्चर्यजनक सागर पर विश्वास करो
जहाँ ज्वार हर समय ताजा रहता है —
और शक्तिशाली धाराएँ स्वतन्त्र होती हैं —
वहाँ अनायास, ऐ नौजवान कोलम्बस —
सत्य का तुम्हारा नया विश्व हो सकता है।’
मत हिचको, अवतार के सिद्धान्त को लेकर अपना दिमाग परेशान मत करो और उसे तुम्हें हतोत्साहित मत करने दो। हर व्यक्ति महान हो सकता है, बशर्ते कि वह प्रयास करे। अपने शहीदों को मत भूलो। करतारसिंह एक नौजवान था, फिर भी बीस वर्ष से कम की आयु में ही देश की सेवा के लिए आगे बढ़कर मुस्कराते हुए वन्देमातरम् के नारे के साथ वह फाँसी के तख्ते पर गया। भाई बालमुकुन्द और अवधबिहारी दोनों ने ही जब ध्येय के लिए जीवन दिया तो वे नौजवान थे। वे तुममें से ही थे। तुम्हें भी वैसा ही ईमानदार, देशभक्त और वैसा ही दिल से आजादी को प्यार करने वाला बनने का प्रयास करना चाहिए, जैसे कि वे लोग थे। सब्र और होशो-हवास मत खोओ, साहस और आशा मत छोड़ो। स्थिरता और दृढ़ता को स्वभाव के रूप में अपनाओ।
नौजवानों को चाहिए कि वे स्वतन्त्रतापूर्वक, गम्भीरता से, शान्ति और सब्र के साथ सोचें। उन्हें चाहिए कि वे भारतीय स्वतन्त्रता के आदर्श को अपने जीवन के एकमात्र लक्ष्य के रूप में अपनायें। उन्हें अपने पैरों पर खड़े होना चाहिए। उन्हें अपने आपको बाहरी प्रभावों से दूर रहकर संगठित करना चाहिए। उन्हें चाहिए कि मक्कार तथा बेईमान लोगों के हाथों में न खेलें, जिनके साथ उनकी कोई समानता नहीं है और जो हर नाजुक मौके पर आदर्श का परित्याग कर देते हैं। उन्हें चाहिए कि संजीदगी और ईमानदारी के साथ ‘'सेवा, त्याग, बलिदान'’ को अनुकरणीय वाक्य के रूप में अपना मार्गदर्शक बनायें। याद रखिये कि ‘'राष्ट्रनिर्माण के लिए हजारों अज्ञात स्त्री-पुरुषों के बलिदान की आवश्यकता होती है जो अपने आराम व हितों के मुकाबले, तथा अपने एवं अपने प्रियजनों के प्राणों के मुकाबले देश की अधिक चिन्ता करते हैं।'’
6-4-1928
वन्देमातरम!
(भगवतीचरण वोहरा बी. ए., प्रचारमन्त्री, नौजवान भारत सभा द्वारा अरोड़ वंश प्रेस, लाहौर से मुद्रित एवं प्रकाशित)
आभार : यह फाइल आरोही, ए-2/128, सैक्टर-11, रोहिणी, नई दिल्ली — 110085 द्वारा प्रकाशित संकलन ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ (सम्पादक : राजेश उपाध्याय एवं मुकेश मानस) के मूल फाइल से ली गयी है।
Date Written: April 1928
Author: Bhagat Singh
Title: Manifesto of Naujwan Bharat Sabha, Lahore( Naujawan Bharat Sabha Lahore ka Ghoshanapatra)
Source: Manifesto of Naujwan Bharat Sabha, Punjab. Written by Bhagat Singh & Bhagawati Charan Vohra, dated 6-4-1928. The Sabha was an open organisation of the party.
* Courtesy : This file has been taken from original file of Aarohi Books' publication Inquilab Zindadad–A Collection of Essays by Bhagat Singh and his friends, edited by Rajesh Upadhyaya and Mukesh Manas.